गरीब का आत्मसम्मान

एक बार मैंने, फ़ोन पे बात करते-करते, पहाड़ गंज से रिक्शा पकड़ा और बोला कि करोलबाग ले चलो। रिक्शा चल पड़ा और मैं फ़ोन पर बातों में मशगूल हो गया, अचानक मेरी नजरें नीचे पड़ती परछाई पे पड़ी।
 वो रिक्शे वाले की परछाई थी। सामान्य सी परछाई थी लेकिन कुछ तो असामान्य था उस परछाई में, जिसकी वजह से मेरी नजरें चिपकी रहीं और मैं उस नामालुम असामान्य चीज़ को उस परछाई में ढूँढ़ने में लग गया। मेरा ध्यान अब फ़ोन पे बातों में नहीं रह गया था। , 'जो चीज़' उस परछाई को देखने में मुझे जकड़ी हुयी थी वो ये थी कि रिक्शे वाले का एक ही हाथ हैंडल पे था। फिर सेकंडों में ही ये ख्याल आया कि हो सकता है, एक ही हाथ से चला रहा हो, दूसरे को रेस्ट दे रहा हो। लेकिन जब मन नहीं माना तो अपने सामानों को व्यवस्थित करते हुए, मैंने थोड़ा उचक के देखा, तो सन्न रह गया। उस रिक्शे वाले का एक हाथ ही नहीं था, वो भी कोहनी से थोड़ा ऊपर तक का...........। मतलब इस अवस्था में भी, इतनी गर्मी में, बिना एक हाथ के, ये रिक्शा चला के अपना जीवन यापन कर रहा है !
अब मेरे दिल में कई विचार चलने लगे, कि इसको कुछ ज्यादा पैसे दे दूँ , लेकिन फिर सोचा इसको इसकी कमजोरी कैसे महसूस करा दूँ। अगर इसको अपने आत्मसम्मान का इतना बोध है कि भीख नहीं मांग रहा है, खुद मेहनत कर रहा है। इसकी जीवटता का अपमान कैसे कर दूँ जबकि कुछ लोग दोनों हाथ सलामत होते हुए भी काम करने की जगहा भीख माँगते है। बहुत सोचने के बाद सोचा कि इसके सामने खुद छोटा बन जाऊं, इसको अपने आप पे गर्व करने का मौका देना चाहिए। पैसे बनने थे 20 रुपये, मैंने सिर्फ 15 रुपये निकाल के ऊपर वाली जेब में रख लिए,और एक 200 के नोट को मैंने धीरे से पीछे से ही उसके कुर्ते की जेब में सरकाते हुए, वहीँ थपथपा के आधे रास्ते में ही उतरने का बोला कि बाबा यहीं रोक दो। फिर में शर्मिंदा होते  हुए बोला बाबा सॉरी 15 रुपये ही बचे हैं मेरे पास। फिर कभी ले लेना प्लीज। और वो मान भी गए,और में आधे रास्ते से पैदल अपनी मंजिल की और बड़ चला आज गर्मी में पैदल चलने में भी एक अलग ही सुकून महसूस हो रहा था,किसी गरीब का आत्मसम्मान मन में मुस्कुरा रहा था,
मेहनती गरीब के पास पैसा तो नही होता पर उसकी पूँजी उसकी इज्ज़त और आत्मसम्मान ही होता है जहाँ भी जरुरत लगे बहा थोड़ी देर के लिए छोटे बन जाये भगवान की नजरों में आप और बड़े हो जाएंगे ।।

कहानी कॉपी किया गया है । 

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